न्याय की लुप्त होती सरहदें: राधिका यादव और पारिवारिक अपराधों में भारत की निवारक विधिक विफलता
प्रस्तावना
भारत में विधि का शासन एक संवैधानिक आदर्श है, किंतु इसकी कार्यान्वयन प्रणाली दुखद रूप से प्रतिक्रियात्मक बनी हुई है। अपराध के बाद सहायता देने वाला कानून, अपराध से पूर्व निवारक उपायों में अपनी प्रतिबद्धता खो चुका है। विशेषतः जब अपराधकर्ता कोई पारिवारिक सदस्य हो, तब कानूनी प्रणाली की निष्क्रियता, सहानुभूति और पूर्वाग्रह से जकड़ी हुई दिखती है। राधिका यादव की दुखद हत्या इस विफलता का कड़ा प्रमाण है—जहाँ एक उज्ज्वल आत्मा, एक हिंसक, पितृसत्तात्मक सोच और पुलिस की निष्क्रियता की भेंट चढ़ गई।
निवारक कानून की व्यर्थता
भारतीय विधिक प्रणाली में अपराध की रोकथाम के लिए विधिक प्रावधान मौजूद हैं—जैसे कि भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता (अब भारतीय न्याय संहिता – BNSS) की धारा 149 (अब 168) और धारा 151 (अब 170)। किंतु व्यवहार में इनका प्रयोग नगण्य है। इन धाराओं का उद्देश्य है कि पुलिस अधिकारी संभावित अपराध को रोकने के लिए कदम उठाए। लेकिन शब्दों का चयन, जैसे कि “may arrest” (गिरफ्तार कर सकता है), पुलिस को विवेकाधिकार की आड़ में निष्क्रिय रहने की छूट देता है।
राधिका यादव के मामले में स्पष्ट था कि उसका जीवन खतरे में है। किंतु पुलिस ने कोई ठोस निवारक कार्यवाही नहीं की। यदि एक युवा महिला न्याय की आशा में पुलिस या न्यायालय जाती, तो उसकी गुहार शायद “पूर्वकालिक” कहकर टाल दी जाती। यह व्यवस्था की दयनीयता है कि एक नागरिक को तभी सुना जाता है, जब वह मृत हो चुका होता है या कोई गंभीर अपराध घटित हो चुका होता है।
परिवार और अपराध: द्वैध सोच की समस्या
हमारी न्याय प्रणाली अब भी यह समझ नहीं पाई है कि “रिश्ते” और “अपराध” परस्पर अनन्य (mutually exclusive) हैं। यदि कोई अपराधकर्ता पिता, माता, भाई या पति हो, तो व्यवस्था उसे एक अपराधी के रूप में देखने के बजाय एक ‘परिजन’ के रूप में देखने लगती है। भावनात्मक, मानसिक, आर्थिक या मनोवैज्ञानिक शोषण की कोई कानूनी गिनती नहीं होती जब तक कि शारीरिक आघात या मृत्यु न हो जाए।
राधिका को एक “पिता” ने मारा, परंतु उससे पहले के महीनों में वह पिता एक शोषक, धमकाने वाला, पितृसत्तात्मक उत्पीड़क था। लेकिन यह सब तब तक कानून के दायरे में नहीं आया जब तक रक्त नहीं बहा। क्या यही है हमारी संविधानिक दृष्टि? क्या रिश्तों का आदर अपराध से ऊपर है?
कानून का मूकदर्शक बनना
हमारे संविधान के अनुच्छेद 21 में जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार सुनिश्चित किया गया है। किंतु क्या यह अधिकार केवल मृत्यु के बाद मूल्यवान है? अगर कोई व्यक्ति जीते जी अपमान, डर, उत्पीड़न और मानसिक हिंसा से पीड़ित हो—तो क्या उसका जीवन मूल्यहीन हो जाता है?
कई मामलों में देखा गया है कि जब कोई महिला या बालिका, विशेषकर अपने ही घर में असुरक्षित महसूस करती है, और सुरक्षा की मांग करती है, तब उसकी बात को गंभीरता से नहीं लिया जाता। उसके परिवार वालों को ‘स्वाभाविक’ संरक्षक मान लिया जाता है, और उसकी स्वतंत्र इच्छा को ‘बगावत’ माना जाता है। राधिका के साथ भी यही हुआ। उसके पिता का अधिकार, उसकी स्वतंत्रता और सुरक्षा पर भारी पड़ गया।
क्या नागरिक अकेले हैं अपनी सुरक्षा के लिए?
यदि पुलिस अधिकारी और विधिक संस्थाएं अपने निवारक कर्तव्यों का पालन नहीं करें, तो यह मान लिया जाना चाहिए कि हर नागरिक अपनी रक्षा स्वयं करे। परंतु जब कोई व्यक्ति निजी रक्षा (Right to Private Defence) के अधिकार की सीमाओं को पार करता है, तो वह अपराधी माना जाता है—तुरंत! तो फिर जब राज्य की जिम्मेदारी निभाने वाले अधिकारी अपने कर्तव्य से विमुख होते हैं, तो उन्हें क्यों न दंडित किया जाए?
न्याय केवल अपराध के पश्चात् मुआवज़े और सज़ा का नाम नहीं होना चाहिए। यह जीवन की सुरक्षा और गरिमा की रक्षा का नाम है। यदि एक व्यक्ति को अपनी जान बचाने के लिए न्यायालय जाना पड़े, और वहां भी उसे टाल दिया जाए, तो यह न्याय की हार है।
कानून में सुधार की आवश्यकता
हमें चाहिए कि:
1. निवारक कानूनों को अनिवार्य बनाया जाए: BNSS की धारा 170 से “may” शब्द हटाकर “shall” किया जाए। जिससे पुलिस पर कानूनी दायित्व बने कि वह निवारक कार्यवाही करे।
2. पारिवारिक शोषण को अपराध की श्रेणी में स्पष्ट रूप से परिभाषित किया जाए: मानसिक, भावनात्मक और आर्थिक उत्पीड़न को भी IPC में स्पष्ट अपराध की श्रेणी में लाया जाए।
3. न्यायिक प्रशिक्षण और दृष्टिकोण में परिवर्तन हो: न्यायाधीशों और पुलिस को सिखाया जाए कि रिश्ते अपराध की ढाल नहीं हैं। पीड़िता की सुरक्षा, अपराधी के रिश्ते से अधिक प्राथमिकता होनी चाहिए।
4. कानूनी जागरूकता को जन आंदोलन बनाया जाए: स्कूली शिक्षा में विधिक साक्षरता को स्थान दिया जाए। लोगों को उनके अधिकारों और सुरक्षा के उपायों की जानकारी होनी चाहिए।
5. पुलिस और प्रशासन की जवाबदेही तय की जाए: यदि किसी पीड़ित की शिकायत की अनदेखी की जाती है और परिणामस्वरूप उसे क्षति होती है, तो संबंधित अधिकारी पर प्रशासनिक और दंडात्मक कार्यवाही हो।
निष्कर्ष
राधिका यादव की हत्या केवल एक घरेलू मामला नहीं थी; यह भारत की विधिक प्रणाली की नाकामी का प्रतीक थी। यह एक चेतावनी है कि यदि कानून केवल अपराध के बाद सक्रिय होता है, तो वह केवल शवों की गिनती कर सकता है, जीवन नहीं बचा सकता। अब समय आ गया है कि भारत की विधिक प्रणाली अपने प्रतिक्रियात्मक रवैये से बाहर आए और निवारक, संवेदनशील और सशक्त न्याय व्यवस्था का निर्माण करे।
यदि हम हर राधिका को बचा नहीं सके, तो कम से कम अगली राधिका को ज़रूर बचा सकें—यही न्याय का कर्तव्य
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