
सांझी: आज से सांझी लीला का आरंभ हो गया हैं । पितृपक्ष को ब्रज में सांझी के रूप में भी मनाया जाता हैं और आश्विन कृष्ण अमावस्या पर कोट आरती की जाती है (जो सांझी का आखिरी दिन होता है)। इस दौरान श्रीराधारानी के मन्दिर परिसर में सांझी बनाकर सांझी की भोग आरती की जाती है। मन्दिर में साँझी अलग अलग कलर व प्रतिदिन अलग अलग ब्रज के स्थिनों को साँझी में दरशाया जाता है। वही प्रतिदिन साँझी के साथ साँझी की समाज गायन भी होता है। और आरती के साथ भोग भी भक्तों को दिया जाता है। बरसाना में आज भी अविवाहित (क्वारी) लडकियाँ घर घर में गोबर की भिन्न भिन्न की आकृतिओं की साँझी बनाती है। और उन्हे रंग व फूलों से सजाती है। साँझी के बारे में पुरातन एक इतिहास मिलता है। कहा जाता है कि बरसाना का पाडरवन साँझी लीला से जुडा हुआ है। श्रीजी अपनी सखियों के साथ साँझी पूजा के लिए पुष्प पाडरवन से लाया करती थी। और साँझी को सुन्दर तरीके से अपने हाथ से सजाया करती थी।
मैं हूं सांझी चीतन हारी
मैं हूं सांझी चीतन हारी
नंदगांव की रहवे वारी
तुमरो नाम सुन्यौ मैं प्यारी
खेलूंगी मैं संग तिहारे, जब तुम देंगी प्यार
दै गलबैंया चली लाड़िली
मुसकाई वह चित चाड़िली
रस भीजीं भई प्रेम माड़िली
श्याम सखी जब सांझी चीतै, देखैं ब्रज की नार
सुंदर सी सांझी चितवायो
सुंदर मीठे गीत गवायो
सुंदर व्यंजन भोग लगायो
मन भाई सी करै आरती, लै कै कंचन थार
ललिता हाव भाव पहिचान्यो
ये तो नंदलाल मैं जान्यो
ऐसोई सबको मन मान्यो
तारी दै दै हंसी सखी सब, आनंद भयौ अपार
वही एक साँझी को लेकर एक प्राचीन कथा आती हैं। जो इस प्रकार है कि एक बार ब्रह्माजी ध्यान कर रहे थे। ध्यान करते समय ब्रह्माजी की मानस पुत्री (बेटी) प्रकट हुईं। उसने ब्रह्माजी को प्रणाम किया और पूछा कि मैं कोन हूँ और मेरा कर्तव्य क्या है। ब्रह्माजी ने उत्तर दिया “टप टप टप” तुम दिन के अन्तिम भाग में उत्पन्न हुई हो इस लिये तुम्हरा नाम संध्या रहेगा। तुम अपने कर्तव्य पालन के लिए तपस्या करो, इतना सुनते ही वह कन्या तपस्या करने के लिए चंद्रभाग पर्वत के पास ब्रुहल्लहित सरोवर के किनारे एक घने जंगल में जाने लगी। उसी समय देव प्रेरणा से वसिष्ठ मुनि आये और इस संध्या देवी को “नमो भगवते वासुदेवाय” मंत्र से दीक्षा दी। संध्या देवी ने जंगल में अत्यधिक घोर तपस्या की। इससे भगवान श्रीविष्णु गरूड़ पर सवार हो उसके सामने प्रकट हो गये। भगवान श्रीविष्णु उसकी तपस्या से संतुष्ट हुए और उससे कुछ वरदान मांगने को कहा। उस समय संध्या देवी ने भगवान श्री विष्णु से तीन वरदान मांगे।
संध्या ने पहला वरदान यह माँगा कि जन्म लेते ही किसी भी प्राणी के मन में वासना की भावना न आये। उसने दूसरा वरदान यह मांगा कि तीनों लोकों में कोई भी स्त्री उसकी बराबरी न करे। उन्होंने तीसरा वर यह मांगा कि उनकी कोई भी रचना वासनामयी न हो। यदि कोई भी व्यक्ति (उसके पति के अलावा) उसे वासना की दृष्टि से देखता है तो वह अपने पतन की ओर अग्रसर हो जाता है और नपुंसक बन जाता है। भगवान शिन ने ये वरदान दिए ।
श्री विष्णु ने अब संध्या देवी से कहा कि, शुरू में उन्हें अपना शरीर छोड़ने की इच्छा थी, उन्हें महर्षि मेघा द्वारा चंद्रभागा नदी के तट पर किए गए यज्ञ की पवित्र अग्नि में प्रवेश करना चाहिए। ऐसा करने से वह अग्निदेव की पुत्री बनेगी।
लेकिन जब संध्या देवी ने भगवान श्री विष्णु की सलाह के अनुसार ऐसा किया, तो यज्ञ की पवित्र अग्नि में प्रवेश करने और अपना शरीर त्यागने के बाद सूर्यदेव ने उन्हें पकड़ लिया। सूर्यदेव उन्हें अपने सूर्य मंडल नामक निवास स्थान पर ले गये। उनकी वह बन गई और ” त्रिकाल संध्या ” का रूप धारण कर लिया । फिर वह ‘अरुंधति’ बनी।
युवा अविवाहित लड़कियां और ब्राह्मण अपनी सभी इच्छाओं को पूरा करने के लिए इस संध्या देवी की पूजा करते थे। व्रज की श्रीगोपिकाओं द्वारा भगवान श्री कृष्ण को पति के रूप में प्राप्त करने के लिए सांझी भी की जाती है। वही साँझी संध्या देवी हैं। जिन ब्रजांगनाओं ने साँझी देवी की पूजा की है वह उसके पूजा के फलस्वरूप उन्हें महारास में श्री व्रजराज श्रीकृष्ण की प्राप्ति हुई। इसे “सांझी” या “संध्या” कहा जाता है।
इस काल में गोपिकाएँ व्रज और अन्य स्थानों के स्थानों, लीलाओं, चरित्रों आदि को दर्शाते हुए ज़मीन/दीवारों पर सुंदर चित्र बनाती थीं। उसके बाद, वे इन चित्रों का पूजन करते थे और इस प्रकार सांझी का पूजन करते थे। उन्होंने श्री कृष्ण को पति रूप में पाने के उद्देश्य से पूजन किया था। ये तस्वीरें फूलों, प्राकृतिक रंगों, केले के पत्तों और पानी से बनाई गई हैं। ये चार प्रकार की सांझी हैं जो पुष्टिमार्ग में की जाती है।
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